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बिलासपुर की पूजा को मिला पर्ल क्वीन का ओहदा, मोतियों की खेती ने बनाया समृद्ध

@ब्यूरो रिर्पोट जाज्वल्य न्यूज हिम्मत सच कहने की,बिलासपुर।

 

समुद्र की मोतियों की मांग बढ़ने और इसकी पूर्ति नहीं होने से अब पर्ल फार्मिंग की जाने लगी है. इस तरह के फार्मिंग ने कई परिवारों को सबल भी बनाया है. उसी तरह की खेती बिलासपुर की एक बेटी कर रही है.वह इस काम से अपना और परिवार का गुजर बसर कर रही है. शहर के सरकंडा की पूजा विश्वकर्मा मोतियों की खेती करती है. वो गावों के तालाबों से सिप लेकर प्रोसेस कर उन्हें पानी में रख मोतियों की खेती करती है. इस काम ने उसे इतना ख्याति दिया कि आज वो बिलासपुर की पर्ल क्वीन  कहलाने लगी हैं.

बिलासपुर की पूजा को मिला पर्ल क्वीन का ओहदा

बिलासपुर: वैसे मोतियां प्राकृतिक रूप से सीप के अंदर बनती है. कीमती होने की वजह से इसकी बढ़ती मांग और पूर्ति में कमी से इसके फार्मिंग का नया व्यापार शुरु हो गया है. अब बिलासपुर में भी मोतियों की फार्मिंग (pearl farming) होने लगी है. कहते हैं जहां चाह है, वहां राह बन ही जाती है. इस कहावत को शहर की एक बेटी पूजा ने सच कर दिखाया है. उन्होंने अपनी स्वर्गवासी बहन के सपने को पूरा करने और आत्मनिर्भर बनने के लिए इस नये रास्ते को अपनाया है. शहर के सरकंडा के जबड़ापारा इलाके में रहने वाली पूजा विश्वकर्मा पर्ल फार्मिंग का अनूठा कार्य कर रही है. पूजा अपने घर के आंगन में ही सीपियों से मोती उत्पादन कर अच्छा मुनाफा कमा रही है. साथ ही निशुल्क प्रशिक्षण के माध्यम से औरों को भी आत्मनिर्भर बना रही है. 

प्रोसेस के माध्यम बनाते हैं मोती: पूजा विश्वकर्मा ने बताया कि प्रोसेस के माध्यम से सीपियों पर चीरा लगाया जाता है. चीरा लगाने के बाद सीपियों के पेट में दाना डाला जाता है. सीपियों को प्रोसेस कर फिर केमिकल में डूबा दिया जाता है. इसके बाद उसे तालाब या टंकी में रखकर लगभग 8 महीने तक छोड़ दिया जाता है. तब तक सीपियां अपने अंदर उस दाने से मोतियों बनाती है. लगभग 8 महीने बाद फिर प्रोसेस के माध्यम से चीरा लगाकर मोती निकाल लिया जाता है. इन मोतियों की कीमत बाजार में अच्छी खासी है और इसकी डिमांड भी अब धीरे धीरे बढ़ने लगी है.

मछली दाना और टंकी की काई खाकर जिंदा रहते हैं सीपियां: तालाब या अन्य स्थानों से लाए गए सीपियों को पानी भरे टंकी या फिर किसी अन्य माध्यम से तालाब और गड्ढे वाले पानी भरे स्थान में रखा जाता है. इसको मछली का दाना खिलाया जाता है. साथ ही यह टंकी या तालाब में जमी काई और मिट्टी के दानों को खाती है. मिट्टी के दाने खाने से इनके अंदर उच्च क्वालिटी की मोतियों बनती है. इसलिए अब पर्ल फार्मिंग तालाबों में भी की जाने लगी है. इनके जिंदा रहने के चांसेस लगभग 90 परसेंट रहते हैं, क्योंकि बहुत ज्यादा इन्हें खिलाना, पिलाना या इनकी देखरेख की आवश्यकता नहीं होती है. ये महीनों तक एक ही जगह में पड़े रहते हैं और जिंदा रहते है.स्वर्गवासी बहन के सपने ने दिलाई ख्याति: पूजा विश्वकर्मा ने बताया कि “पर्ल फार्मिंग  का सपना उनकी बड़ी बहन का था. वह पर्ल फार्मिंग करना चाहती थी, लेकिन किसी कारणवश उनका देहांत हो गया. बहन पूजा ने उनके अधूरे सपने को पूरा करने की ठानी और वह इसके लिए ट्रेनिंग भी ली है. ट्रेनिंग लेने के बाद पूजा पर्ल फार्मिंग का काम करने लगी. इस काम ने पूजा को इतना ख्याति दिलाया कि आज वह बिलासपुर शहर में पर्ल क्वीन के नाम से जानी जाती है.

पूजा की बहन काजल ने बताया कि “इस पर्ल फार्मिंग के काम से अब उसका और बहन का परिवार का खर्चा आराम से चल जाता है.” काजल ने बताया कि “पूजा अब परिवार में उसकी इकलौती रिश्तेदार बच गई हैं और अब वो पूजा के साथ ही रहकर इस काम को करती हैं. दोनों बहन परिवार चलाने के लायक पैसा कमा लेते हैं।

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